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स्थितप्रज्ञ के लक्षण पर भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी (Lord Krishna’s words on the characteristics of a Sthitaprajna)

स्थितप्रज्ञ के लक्षण पर भगवान् श्रीकृष्ण की वाणी (Lord Krishna’s words on the characteristics of a Sthitaprajna)

* हे केशव ! स्थितप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं? स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

* हे पार्थ! जब यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और जब वह स्वयं अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ पुरुष कहते हैं।

* जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है, सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा दूर हो गयी है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं- ऐसे मुनि को स्थिरबुद्धि कहा जाता है।

* जो पुरुष सर्वत्र आसक्तिरहित है, जो शुभ और अशुभ वस्तुओं को प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष ही करता है, ऐसे पुरुष की बुद्धि स्थिर है।

* जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

* जो पुरुष इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण नहीं करता, उसके विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर उसका राग निवृत्त नहीं होता। किन्तु स्थितप्रज्ञ पुरुष का राग भी परमात्मा के साक्षात्कार से निवृत्त हो जाता है।

* हे कौन्तेय! ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ यत्न करनेवाले बुद्धिमान पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं। अतः योगी को इन समस्त इन्द्रियों को वश में करके समाहित-चित्त होकर मेरे ध्यान में स्थित होना चाहिए। वस्तुतः जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।

* विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

* क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मृति विभ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रंश से बुद्धि-नाश तथा बुद्धि-नाश से मनुष्य पतित हो जाता है।

* परन्तु आत्म-संयमवान् पुरुष राग-द्वेष से रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगते हुए अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त करता है।

* जिस योगी की आत्मा ज्ञान और साक्षात्कार के द्वारा सन्तुष्ट है, जो स्थिर है तथा जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं और जो मिट्टी, पत्थर तथा स्वर्ण को समान मानता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

* निर्मलता की प्राप्ति होने पर समस्त दुःख समाप्त हो जाते हैं। प्रसन्न चित्तवाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

* जिस पुरुष की इन्द्रियाँ पूर्णतः उसके वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

* जो सम्पूर्ण प्राणियों के लिए रात्रि है, उसमें योगी पुरुष जागता है और जिसमें सभी प्राणी जागते हैं, वह तत्त्वदर्शी मुनि के लिए रात्रि है।

* जैसे सब ओर से परिपूर्ण और अचल (रूप से प्रतिष्ठित) सागर में नदियाँ बहकर समा जाती हैं, वैसे ही जिस स्थिरबुद्धि पुरुष में सम्पूर्ण भोग समा जाते हैं, वह परम शान्ति को प्राप्त करता है, न कि वह जो भोगों की कामना करता है।

* जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित होता है, उसे शान्ति की प्राप्ति होती है।

* जैसे जीवात्मा इस शरीर में कौमार्य, यौवन और वार्धक्य की प्राप्तिं करता है, वैसे ही वह अन्य शरीर को प्राप्त करता है। उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।

* हे कौन्तेय! इन्द्रियों के तथा विषयों के संयोग से उष्णता-शीत और सुख-दुःख प्रतिफलित होते हैं। ये आने-जानेवाले हैं तथा इसलिए अनित्य हैं।

* सुख-दुःख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष को ये व्याकुल नहीं कर सकते, वह मोक्ष के योग्य होता है।

* जो पुरुष नाशवान् सर्वभूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वस्तुतः वही देखता है।

* सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरणवाला पुरुष संन्यास के द्वारा परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करता है।

* अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रह को त्यागकर ममतारहित और शान्त व्यक्ति ब्रह्म होने के योग्य होता है।

* विशुद्ध बुद्धि से युक्त होकर, सात्त्विक धारणा से अन्तःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर एवं राग-द्वेषों को नष्ट करके वह ब्रह्म होने के योग्य होता है।

* एकान्त और शुद्ध स्थान का सेवन करनेवाला, मिताहारी, जीते हुए मन, वाणी और शरीरवाला, निरन्तर ध्यानयोग में परायण और दृढ़ वैराग्य को सम्यक् रूप से प्राप्त करनेवाला व्यक्ति ब्रह्म होने के योग्य होता है।

* हे पार्थ! यही ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त करके वह फिर मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इसमें स्थित होकर वह ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

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