ज्ञानयोग पर भगवान श्री कृष्ण की वाणी
* जिन व्यक्तियों का हृदय पवित्र है, वे धन्य हैं, क्योंकि उन्हें ईश्वर का ज्ञान दिया जाएगा।
* जिस प्रकार उगता हुआ सूर्य रात्रि के अन्धकार का विनाश कर देता है, वैसे ही आत्मा का ज्ञान समस्त भ्रमों को दूर हटा देता है।
* ज्ञानयोग उन लोगों के लिए है, जो किसी भी वस्तु की कामना नहीं करते, क्योंकि उन्होंने यह जानते हुए समस्त कर्मों का त्याग कर दिया है कि प्रत्येक इच्छा अशुभ से परिपूर्ण होती है।
* मानव-जन्म धन्य है; स्वर्ग के निवासी भी इस जन्म की कामना करते हैं; क्योंकि मनुष्य के द्वारा ही वास्तविक ज्ञान और विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति की जा सकती है।
* पृथ्वी या स्वर्ग में जीवन-लाभ की चेष्टा न कर। जीवन के प्रति तृष्णा माया है। जीवन को क्षणस्थायी जानते हुए अज्ञान के इस स्वप्न से जाग उठ, मृत्यु का ग्रास बनने से पूर्व ज्ञान और मुक्ति पाने का प्रयास कर।
* उस ज्ञान को सम्यक् प्रणिपात, निष्कपट भाव से प्रश्न तथा सेवा के द्वारा प्राप्त कर। वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
* उस ज्ञान को जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा, और हे पाण्डव ! उस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को अपने भीतर देखेगा और फिर उन्हें मुझमें पाएगा।
* यदि तू सभी पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है, तो भी तू ज्ञान की नौका के द्वारा समस्त पों से तर जाएगा।
* हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्मसात् कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि समस्त कर्मों को भस्मसात् कर देती है।
* निःसंदेह इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला कुछ भी नहीं है। योग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ पुरुष उस ज्ञान को कालक्रम में स्वयं अपनी आत्मा में अनुभव करता है।
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* श्रद्धावान् और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान की प्राप्ति करता है तथा ज्ञान प्राप्त करके वह तत्क्षण परम शान्ति की उपलब्धि करता है।
* किन्तु अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष विनष्ट हो जाता है। संशययुक्त पुरुष के लिए न तो यह संसार है, न परलोक और न सुख ही।
* सर्वव्यापी परमात्मा न तो किसी का पाप ग्रहण करता है, न किसी का पुण्य ही। ज्ञान माया के द्वारा बँका हुआ है, इसलिए समस्त जीव मोहित हो रहे हैं।
* परन्तु जिनका अज्ञान आत्मज्ञान के द्वारा नष्ट हो गया है, उनका ज्ञान सूर्य के समान उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित करता है।
* जिनकी बुद्धि तद्रूप है, मन तद्रूप है, जो उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा में निरन्तर एकनिष्ठ हैं, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर उस परम गति को प्राप्त करते हैं, जहाँ से पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) नहीं होती।
* मैं पुनः तुझसे ज्ञानों में भी उत्तम परम ज्ञान को कहूँगा, जिसे जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।
* इस ज्ञान को धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त होने वाले पुरुष फिर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न नहीं होते और न प्रलय काल में व्याकुल होते हैं।
* हे भारत ! तू सभी क्षेत्रों (शरीरों) में मुझे ही क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (विकारसहित प्रकृति और पुरुष) का ज्ञान ही मेरे विचार से तत्त्वज्ञान है।
* उन पर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में स्थित होते हुए अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को ज्ञानरूपी दीपक के प्रकाश से नष्ट करता हूँ।
* मानरहितता, दम्भहीनता, अहिंसा, क्षमाभाव, मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गुरु की सेवा, शुद्धता, स्थैर्य और मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह – इन सब को ज्ञान कहा जाता है।
* इन्द्रियभोग्य पदार्थों से अनासक्ति, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि में दुःख और दोष का दर्शन – ये सब ज्ञानी व्यक्ति के सद्गुण हैं।
* पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में चित्त का सदैव सम रहना- ये सब ज्ञान कहे जाते हैं।
* मुझ (परमेश्वर) में अनन्य भाव से अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त और शुद्ध स्थान में रहने का स्वभाव, जनसमुदाय से विरति, अध्यात्म-ज्ञान में नित्य स्थिति, तत्त्वज्ञान के उद्देश्यरूप परमात्मा का सर्वत्र दर्शन – इन सब को ज्ञान कहा गया है तथा जो इससे विपरीत है, उसे अज्ञान।
* हे कौन्तेय! सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष किस प्रकार ज्ञान की परानिष्ठा अर्थात ब्रह्म को प्राप्त होता है, उसको तू मुझसे संक्षेप में जान।
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